🌳 आदिवासी एवं प्रकृति: संरक्षण का अद्भुत सामंजस्य
🌳 Tribals and Nature: The Wonderful Harmony of Conservation
आदिवासी प्रकृति के मित्र एवं उनके संरक्षक माने जाते हैं। पर क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि जब किसी अन्य मानव समुदाय को जंगल निवास स्थान के रूप में मिला, तो उन्होंने सदैव जंगल का नाश ही किया है, हमने कितने ही जंगलों को शहरों में तब्दील होते देखा है, इसे ही तो हम Urbanization (नगरीकरण) सभ्यता का विकास कहते आये हैं। फिर ये कैसे संभव है कि हमारे जैसे ही दिखने वाले ये आदिवासी समुदाय प्रकृति के बीच रहकर, बिना उसे क्षति पहुँचाए, बिना उनका दोहन किए, अपना जीवन यापन करते आये हैं? है न यह आश्चर्य!
✨ संरक्षण की अनूठी योजनाएँ: आदिवासी जीवनशैली
तो आइये, इस लेख के द्वारा हम जानते हैं कि आखिर इन आदिवासी समूह के पास ऐसी क्या योजनाएँ हैं, जिससे ये अपने जीवन यापन के लिए प्रकृति पर निर्भर रहने के बावजूद उसके शोषक न होकर, उनके संरक्षक माने जाते हैं।
1. 🌾 झूम खेती (Shifting Cultivation) की वैज्ञानिक परंपरा
झूम खेती एक ऐसी प्रथा थी जिसे भले ही आज के युग में प्रकृति के लिए घातक प्रथा मानी जाती है, क्योंकि अब हमारे पास औसत से भी कम वन संसाधन बचे हैं। परंतु जब हम प्रचुर वन संसाधन से घिरे थे, तो यह प्रथा वनों की गुणवत्ता को बनाए रखती थी। इससे न केवल आदिवासी खेती के लिए उपजाऊ ज़मीन पाते थे, बल्कि जब वे इस जगह को छोड़कर दूसरी जगह खेती करने जाते थे, तो छोड़े हुए खेतों पर जो वन उगते थे, उनमें विविधता एवं गुणवत्ता पाई जाती थी।
2. 🏡 मकान बनाने, जलावन एवं अन्य आवश्यकताओं के लिए
अन्य मानव समुदाय की तरह आदिवासी भी पेड़ों पर ही निर्भर करते हैं, परंतु क्या आपको पता है कि एक सामान्य समुदाय और आदिवासी समुदाय के बीच पेड़ों को काटने में एक बड़ा अंतर पाया जाता है?
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हम जब पेड़ काटते हैं, तो हमारा ध्येय केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है।
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परंतु जब ये प्रकृति-पूजक किसी वृक्ष को काटते हैं, तो न सिर्फ अपनी आवश्यकताओं के बारे में सोच रहे होते हैं, वरन् वो प्रकृति के संवर्धन के विषय में भी सोचते हैं।
इसलिए वे अक्सर कटी हुई तनाओं पर कुछ लेप या कुछ समुदायों द्वारा पत्थर भी बाँधा जाता है। यह उनका अपना ही विज्ञान है, जिससे उस कटे हुए भाग में और भी तेजी से कई नए तनाओं का संवर्धन होता है।

3. 🏹 सेंदरा या शिकार की नैतिक प्रथा
यद्यपि यह प्रथा आज प्रतिबंधित है, परंतु आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आदिवासियों में जब यह प्रथा व्यापक रूप में प्रचलित थी, तब भी वन्य जीवों का अत्यधिक ह्रास नहीं देखा गया, क्योंकि शिकार के इनके अपने ही नियम थे। जैसे, किसी भी गर्भवती जीव की हत्या नहीं करना, भले ही वह छोटा खरगोश ही क्यों न हो। कुछ जानवरों को भिन्न-भिन्न समुदायों द्वारा पूज्य माना जाता है, जिस कारणवश उनके निवास स्थान को संरक्षित छोड़ दिया जाता है। यह उनके द्वारा प्रकृति के प्रतिपूर्ति के नियम को दर्शाता है।
4. 🐟 जलीय जीवों के लिए प्रतिपूर्ति का नियम
हम इनके द्वारा जलीय जीवों के लिए भी प्रतिपूर्ति का नियम देखते हैं। तालाब से मछलियों के उत्पादन में भी तालाब के एक हिस्से को बाँध दिया जाता है, जिससे मछलियों का उत्पादन हो, तथा अन्य हिस्से को खुला छोड़ दिया जाता है ताकि वहाँ मछलियों का संवर्धन होता रहे।
⚖️ निष्कर्ष: प्रकृति का संतुलन
इस प्रकार हम पाते हैं कि आदिवासियों की प्रकृति पर पूर्ण निर्भरता उन्हें प्रकृति का दोहक नहीं वरन् उनका संरक्षक बनाती है। साधारणतः ये बातें विरोधाभासी प्रतीत होती हैं, परंतु इनकी परम्पराओं का सूक्ष्मता से अध्ययन करें तो हम यह आसानी से समझ सकते हैं कि ये आदिवासी न सिर्फ प्रकृति के संरक्षक हैं, बल्कि उनके संतुलन बनाए रखने में सहायक हैं।
