भारतीय समाज और जाति व्यवस्था
एक चिरस्थायी संरचना का विश्लेषण
हाल ही में आई, आई.आई.एम. (IIM) बैंगलोर की एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार के सरकारी स्कूल के शिक्षक, बच्चों को लेकर जो धारणा बनाते है उसमे जाति आधारित धारणा अधिक पाई गई। इस ख़बर ने मेरे मन में एक प्रश्न खड़ा कर दिया कि यह 2000-3000 साल पुरानी सामाजिक संरचना, जिसे इस आधुनिक समाज में सभी कुप्रथा मानते हैं, जिसके ख़िलाफ़ कानून हैं, पाठ्यक्रम में शामिल है। कई समाजिक सुधार वाद विवाद किये गए। आज कोई ऐसा अंधविश्वास भी नहीं कि ये ईश्वर (यानि कोई उपरी शक्ति ) के द्वारा बनाई गई व्यवस्था है। फिर ऐसा क्या है कि हम हर क्षेत्रों में तो आगे बढ़ रहे हैं? परंतु जाति व्यवस्था की हथकड़ी को अभी तक तोड़ नहीं पाए? और तोड़ पाना तो दूर, कई मामलों में ये अधिक जटिल भी होती जा रही है।
I. सामाजिक परंपराएँ और सांस्कृतिक पहचान: जीवनशैली का अभिन्न अंग
जाति व्यवस्था भारतीय समाज में महज़ एक सामाजिक वर्गीकरण नहीं है, बल्कि यह लोगों की जीवनशैली, पहचान, कर्मकांड, विवाह, त्योहारों और खान-पान में गहरे तक समाहित है।
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धार्मिक कर्मकांडों में प्रभुत्व: आज भी अधिकांश हिंदू पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों को ब्राह्मणों द्वारा सम्पन्न कराना ही श्रेष्ठ मानते हैं।
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कर्म और जाति का समीकरण: कुछ विशिष्ट कर्मकांड या पारंपरिक पेशे आज भी सम्बंधित जातियों के लिए ही आरक्षित माने जाते हैं, जिससे यह धारणा बनी रहती है कि कुछ कार्य किसी विशेष जाति की ही “थाती” हैं। यह सांस्कृतिक जुड़ाव जाति को केवल एक ‘पहचान’ से कहीं ज़्यादा एक ‘जीवन पद्धति’ बना देता है।
II. सामाजिक पहचान और सुरक्षा भावना: समूह में जीने की प्रवृत्ति
भारतीय समाज की संरचना समूह में रहने की सोच को महत्व देती है। जाति व्यवस्था व्यक्ति को जन्म से ही एक बना-बनाया समूह प्रदान करती है, जो उसे सामाजिक सुरक्षा और जुड़ाव की भावना देती है।
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सुरक्षित समूह की भावना: व्यक्ति इस समूह के भीतर सुरक्षित और स्वीकृत महसूस करता है।
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प्रवासी संदर्भ में जाति का महत्व: जब व्यक्ति अपने मूल स्थान से दूर, किसी अन्य प्रदेश या शहर में जाता है, तो वह सबसे पहले उसी समूह के लोगों को तलाशता है और उनके बीच रहने में स्वयं को अधिक सुरक्षित मानता है। यह समूह भावनात्मक और सामाजिक समर्थन का एक मजबूत जाल प्रदान करता है, जो आधुनिक समाज के अकेलेपन को कम करता है।
III. आर्थिक संसाधनों की ऐतिहासिक असमानता और सामाजिक श्रेष्ठता
सदियों तक, विभिन्न जातियों ने स्वयं को विशिष्ट आर्थिक गतिविधियों से जोड़ा, जिसने आर्थिक संसाधनों पर ऐतिहासिक असमानता को जन्म दिया।
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पारंपरिक व्यवसायों पर एकाधिकार:
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क्षत्रिय राजसत्ता से, स्वर्णकार सोने के व्यवसाय से, लोहार लोहे के काम से, और कायस्थ मुनीमगीरी से जुड़े रहे।
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ऊँची कही जाने वाली जातियों ने इन आर्थिक संसाधनों पर बढ़त हासिल कर ली, जिसे बाद में सामाजिक प्रतिष्ठा से भी जोड़ दिया गया।
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आधुनिक युग में भी निरंतरता: भले ही आधुनिक युग में आर्थिक क्रियाकलाप अब एक जाति विशेष की विरासत नहीं रहे, लेकिन ऐतिहासिक सामाजिक श्रेष्ठता के कारण, उच्च जाति के लोग अपनी जाति की पहचान को बनाए रखना चाहते हैं ताकि वे अपनी पारंपरिक सामाजिक प्रतिष्ठा को कायम रख सकें। आर्थिक शक्ति का सामाजिक सम्मान में रूपांतरण इस व्यवस्था को पोषित करता है।
IV. विवाह में जाति की भूमिका: पीढ़ी दर पीढ़ी संचरण
विवाह वह मुख्य संस्था है जो जाति व्यवस्था को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाती है।
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जातीय अंतर्विवाह (Endogamy): भारत में लगभग 85-90% विवाह अपनी ही जाति के भीतर होते हैं।
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परंपरा और सम्मान की रक्षा: परिवार ऐसा अपनी परंपरा, सामाजिक मान-सम्मान, और पहचान को बचाने के लिए करते हैं। अंतर-जातीय विवाह को अक्सर परिवार की प्रतिष्ठा पर एक धब्बा माना जाता है।
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चूंकि विवाह ही जाति पर आधारित होता है, इसलिए जाति व्यवस्था का चक्र कभी टूट नहीं पाता और बच्चों को उनके माता-पिता की जाति विरासत में मिल जाती है।
V. मनोवैज्ञानिक कारण: श्रेष्ठता और हीनता की भावना
जाति व्यवस्था समाज में श्रेष्ठता (Superiority) और हीनता (Inferiority) की गहरी मनोवैज्ञानिक भावनाएँ पैदा करती है।
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उच्च जातियों में श्रेष्ठता बोध: कुछ उच्च जातियों में अभी भी यह पूर्वाग्रह मौजूद है कि वे पवित्र और श्रेष्ठ हैं, जिससे उनमें दूसरों के प्रति भेदभाव करने की प्रवृत्ति बनी रहती है।
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निम्न जातियों में आत्मविश्वास की कमी: दूसरी ओर, तथाकथित निम्न जातियाँ अक्सर भेदभाव और सामाजिक बहिष्करण के कारण अपना आत्मविश्वास खो देती हैं। कई लोग अपनी जाति पहचान को ही अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा मान लेते हैं, जिसे कभी-कभी “पहचान की राजनीति” के रूप में भी देखा जाता है। यह मानसिक ढाँचा पूर्वाग्रहों को जीवित रखता है।
VI. राजनीति में जाति का गहरा दुरुपयोग: वोट बैंक की हकीकत
भारतीय लोकतंत्र में, जाति एक बड़ा और शक्तिशाली वोट बैंक है, जिसने इस व्यवस्था को एक राजनीतिक औजार में बदल दिया है।
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जाति-आधारित लामबंदी: राजनीतिक दल वोट पाने के लिए जाति-आधारित रैलियाँ, घोषणाएँ, आरक्षण के वादे और उम्मीदवार चयन करते हैं।
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संस्थागत समर्थन: आरक्षण की नीति, जो सामाजिक न्याय के लिए लाई गई थी, का भी राजनीतिक दलों द्वारा अक्सर लाभ के लिए दुरुपयोग किया जाता है, जिससे जाति की पहचान और अधिक मज़बूत होती है।
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पीढ़ीगत राजनीति: यह प्रवृत्ति इतनी गहरी हो चुकी है कि नए, भले ही जाति-नियमों से अनजान, राजनेताओं के बच्चे भी राजनीति में आते ही वोट बैंक का लाभ पाने के लिए जाति का राग अलापने लगते हैं। राजनीति इस संरचना को तोड़ने की बजाय, उसे पोषण प्रदान कर रही है।

निष्कर्ष: एक जटिल सामाजिक संरचना
इन सभी बिंदुओं पर विचार कर हम देखते हैं कि जाति व्यवस्था केवल पुरानी सोच नहीं है बल्कि यह एक सामाजिक संरचना है जो परिवार, अर्थव्यवस्था, राजनीति, सामाजिक सुरक्षा, मनोविज्ञान, और परंपरा से गहराई तक जुड़ी हुई है। यह हमारे मन मस्तिष्क में इस प्रकार घर बना चुकी है कि, कई बार ऐसा देखने में आता है कि बड़े पद पर बैठा व्यक्ति भी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर व्यक्ति विशेष के प्रति गलत निर्णय ले लेता है। बिहार के सरकारी स्कूल के सर्वे में आया नतीजा इसका ही एक भाग है।
