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बदलते रिश्ते, टूटते परिवार: आधुनिकता के दौर में खोती नैतिकता और भावनात्मक जुड़ाव

Neha V Shahdeo
Last updated: 2025/05/28 at 5:48 PM
Neha V Shahdeo
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5 Min Read
बदलते रिश्ते, टूटते परिवार: आधुनिकता के दौर में खोती नैतिकता और भावनात्मक जुड़ाव
बदलते रिश्ते, टूटते परिवार: आधुनिकता के दौर में खोती नैतिकता और भावनात्मक जुड़ाव
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बदलते रिश्ते, टूटते परिवार: आधुनिकता के दौर में खोती नैतिकता और भावनात्मक जुड़ाव

Contents
संयुक्त परिवार से एकल परिवार की ओर:रिश्तों में व्यावसायिकता:संस्कार और सहानुभूति का अभाव:लाभ-हानि का आकलन:महिलाओं पर दोहरी जिम्मेदारी:
बदलते रिश्ते, टूटते परिवार: आधुनिकता के दौर में खोती नैतिकता और भावनात्मक जुड़ाव
बदलते रिश्ते, टूटते परिवार: आधुनिकता के दौर में खोती नैतिकता और भावनात्मक जुड़ाव

“आपके आने से घर में कितनी रौनक है”, यह गीत सदियों से भारतीय परिवारों में नववधू का स्वागत करते हुए गाया जाता रहा है। पर क्या आज भी यह गीत उतना ही सार्थक है? क्या आज भी बहू के आने से घर में उतनी ही रौनक होती है, या परिवार उसे समझने और अपनाने में सक्षम हो पाता है? आधुनिकता के इस दौर में, जहां हर चीज़ प्लस और माइनस के आधार पर आंकी जाती है, रिश्तों में नैतिकता का अभाव बढ़ता जा रहा है। पुराने ज़माने में एक छत के नीचे पूरा परिवार रहता था, सदस्यों में भावनात्मक जुड़ाव होता था, परन्तु आज इंसान तो ज़्यादा हैं, पर भावनात्मक जुड़ाव कम होता जा रहा है। यह लेख आधुनिक परिवारों में आ रहे बदलावों, मूल्यों के क्षरण और रिश्तों में बढ़ती व्यावसायिकता पर प्रकाश डालता है।

संयुक्त परिवार से एकल परिवार की ओर:

पहले के ज़माने में ज़्यादातर परिवार संयुक्त हुआ करते थे, जहां घर के बड़े गलतियों को नज़रअंदाज़ कर रिश्तों को निभाते थे। लेकिन आज संयुक्त परिवारों की कमी और एकल परिवारों का चलन बढ़ता जा रहा है। इसका मुख्य कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चाह और जीवनशैली में बदलाव है। एकल परिवार में पति-पत्नी अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होते हैं, लेकिन संयुक्त परिवार में मिलने वाला भावनात्मक और आर्थिक सहयोग उन्हें नहीं मिल पाता।

रिश्तों में व्यावसायिकता:

आज के ज़माने में रिश्तों में प्रोफेशनलिज्म आ गया है। परिवार के सदस्य आपस में कॉन्टैक्ट बनाते हैं ताकि ज़रूरत में काम आ सकें। अगर आपसे मतलब है, तब आपको आपके परिवार में भी पूछा जाएगा, अन्यथा आपको भी किनारा कर दिया जाएगा। व्यवसायीकरण के कारण हमने अपने बच्चों को मैटेरियलिस्टिक बना दिया है। वे भूल गए हैं कि नैतिक शिक्षा क्या होती है। पुराने ज़माने में परिवार सिद्धांतों से चलते थे, लेकिन नए ज़माने में इमोशनल कनेक्टिविटी कम होने की वजह से परिवार बिखरते जा रहे हैं।

संस्कार और सहानुभूति का अभाव:

जब हम छोटे हुआ करते थे, तब हमारे परिवार में संस्कार सिखाए जाते थे कि बड़ों से कैसे बात करनी है, छोटों से कैसे सहानुभूति रखनी है और समाज के लोगों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए। लेकिन आज के दौर में पति-पत्नी का सामंजस्य ही नहीं बैठता है, तो परिवार कैसे टिकेगा? अब महिलाओं में वह सहनशीलता कम हो गई है। वे भी प्रैक्टिकल हो गई हैं।

लाभ-हानि का आकलन:

आजकल परिवारों में यह देखा जाता है कि हमें अपने बच्चों से क्या फायदा है या फिर बच्चे यह देखते हैं कि हमें अपने मां-बाप से क्या फायदा है। अगर रिश्तों का आधार ही लाभ-हानि का आकलन होगा, तो वह दिन दूर नहीं जब परिवार के पेड़ से सदस्य गायब हो जाएंगे और हर इंसान अकेला हो जाएगा।

महिलाओं पर दोहरी जिम्मेदारी:

आजकल महिलाओं के लिए परिवार संभालना इसलिए भी मुश्किल हो जाता है क्योंकि वे पुरुषों के समान काम कर रही हैं या फिर यह कहें कि पुरुषों से ज़्यादा काम कर रही हैं। दोहरी जिम्मेदारी निभाने में वे परिवार को वह प्राथमिकता नहीं दे पातीं जो पहले महिलाएं देती थीं। पुराने ज़माने में परिवार में बच्चों को पालना आसान था क्योंकि सभी सदस्य मिलकर उनकी देखभाल करते थे। आजकल के बच्चे तो मोबाइल, गैजेट्स और बेबी सिटर पाल रहे हैं।

इन सब चीज़ों को देखकर यही लगता है कि परिवार में प्यार कम हो गया है या फिर यह बोल खत्म हो गया है। यह सच है कि नैतिकता खत्म हो गई है और परिवार में भी व्यवसायीकरण हावी हो गया है। परिवारों को टूटने से बचाने के लिए हमें रिश्तों में भावनात्मक जुड़ाव को बढ़ाना होगा, नैतिक मूल्यों को अपनाना होगा और लाभ-हानि के आकलन से ऊपर उठकर रिश्तों को निभाना होगा। तभी हम अपने परिवारों को खुशहाल और मजबूत बना पाएंगे। यह आवश्यक है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को प्रेम, त्याग, सहानुभूति और सहनशीलता जैसे मूल्यों का महत्व समझाएं ताकि वे एक बेहतर समाज का निर्माण कर सकें, जहां रिश्तों का महत्व बना रहे और परिवार एकजुट रहें।

 

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