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Freedom At Midnight Review: आजादी के इतिहास में सबसे विवादित पन्ने को दिलचस्प पॉलिटिकल थ्रिलर बनाता है शो

Surbhi Shipra
Last updated: 2024/11/15 at 5:21 PM
Surbhi Shipra
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11 Min Read
Freedom At Midnight Review: आजादी के इतिहास में सबसे विवादित पन्ने को दिलचस्प पॉलिटिकल थ्रिलर बनाता है शो
Freedom At Midnight Review: आजादी के इतिहास में सबसे विवादित पन्ने को दिलचस्प पॉलिटिकल थ्रिलर बनाता है शो
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Freedom At Midnight Review: आजादी के इतिहास में सबसे विवादित पन्ने को दिलचस्प पॉलिटिकल थ्रिलर बनाता है शो

Whenever political issues heat up, we definitely go to the threshold of partition where Pakistan was being cut off from India. But what was going on in the minds of those few people who were sitting to decide the fate of crores of people? Sony Liv’s new show ‘Freedom at Midnight’ tells this story.

Contents
Freedom At Midnight Review: आजादी के इतिहास में सबसे विवादित पन्ने को दिलचस्प पॉलिटिकल थ्रिलर बनाता है शोक्या है शो का मुद्ददा?कितना कामयाब है शो?
Freedom At Midnight
Freedom At Midnight

मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक और चौराहों से लेकर दुकानों तक, पॉलिटिक्स इंडियन जनता की रूटीन चकल्लस का सबसे पसंदीदा टॉपिक है. और हर पॉलिटिकल चर्चा घूम-फिरकर उस एक महत्वपूर्ण रात तक जरूर पहुंचती है, जहां 200 साल की हुकूमत के बाद अंग्रेज वापस जा रहे थे और एक देश के लोग, दो देशों बांटे जा रहे थे.

14 और 15 अगस्त के बीच की वो रात, जिसे आज हम भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आइकॉनिक स्पीच ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ से याद करते हैं. जब भी राजनीतिक मुद्दे गर्माते हैं तो विभाजन की उस दहलीज तक जरूर जाते हैं जहां हिंदुस्तान से पाकिस्तान काटा जा रहा था. आजादी के 77 साल बाद भी ये सवाल लोगों के दिमाग में बना ही रहता है कि क्या हिंदुस्तान को सच में 1947 के उस बंटवारे की जरूरत थी? क्या बंटवारा सही तरीके से हुआ? क्या हिंदुस्तान में से धर्म के आधार पर एक नया देश बनाया जाना जायज था?

‘पिंजर’, ‘मिडनाईट चिल्ड्रेन’ और ‘1947’ जैसी क्रिटिक्स की फेवरेट फिल्में हों या ‘गदर: एक प्रेम कथा’ जीसी पॉपुलर मसाला एंटरटेनर… भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी का आम लोगों के जीवन में उतरना कई फिल्मों ने ऑनस्क्रीन दर्ज किया. फिल्मों में अक्सर ये नोशन भी रहा कि चंद लोगों ने मिलकर करोड़ों लोगों की तकदीरें लिख दीं.

मगर उन चंद लोगों के दिमागों में क्या चल रहा था? करोड़ों लोगों की तकदीर तय करने बैठे उन गिनती के लोगों ने क्या सोचा होगा? उनका क्या पर्सनल और पॉलिटिकल स्ट्रगल रहा? पहली बार दूर से आजादी की गंध मिलने से लेकर, बंटवारे के फैसले तक पहुंचने का वो सफर देश की राजनीति के लिए कैसा था? सोनी लिव का नया शो ‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ यही कहानी दिखाता है.

‘मुंबई डायरीज’ और ‘रॉकेट बॉयज’ जैसी शोज के क्रिएटर निखिल अडवाणी ने इस बार खुद ही डायरेक्ट करने का जिम्मा भी संभाला है. ‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ को निखिल ने इसी नाम की एक चर्चित किताब से स्क्रीन के लिए एडाप्ट किया है, जो 1975 में आई थी.

क्या है शो का मुद्ददा?

‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ की कहानी 1946, कलकत्ता (अब कोलकाता) से शुरू होती है. शो का पहला सीक्वेंस भारत के राष्ट्रपिता, महात्मा गांधी से शुरू होता है. बंटवारे को लेकर एक पत्रकार के सवाल पर गांधी जवाब देते हैं- ‘हिंदुस्तान का बंटवारा होने से पहले मेरे शरीर का बंटवारा होगा.’ इस एक डायलॉग से आपको बंटवारे पर गांधी का पक्ष पता लग जाता है.

यहां से शुरू हुई कहानी जून, 1947 तक की घटनाएं दिखाती है, जब बंटवारे की ऑफिशियल अनाउंसमेंट की गई. कहानी में मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग के नेता अलग देश के एम्बिशन को पूरा करने के लिए लड़ते नजर आते हैं. शो में दिखाया गया है कि कैसे द्वारा प्रायोजित हिंसक दंगों में नोआखाली से रावलपिंडी तक हजारों लोग मारे जा रहे हैं.

एक पक्ष जवाहर लाल नेहरू का है जो गांधी के मार्गदर्शन में स्वतंत्रता की लड़ाई में कूदे थे और धीरे-धीरे उन्हीं के सामने खड़े होते हैं. सरदार पटेल को ‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ एक ऐसे सन्दर्भ के साथ दिखाता है, जो उनकी पॉपुलर पॉलिटिकल इमेज में यकीन करने वालों को पहली नजर में पचना मुश्किल है. आज के 10 सेकंड वाले सोशल मीडिया पॉलिटिकल एनालिसिस में नेहरू के खिलाफ एक पक्ष बना दिए गए पटेल, शो में उनके साथ बहुत गर्मजोशी भरी बॉन्डिंग में नजर आते हैं.

‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ में नेहरू और पटेल गांधी की छत्रछाया से निकलकर आए दो अलग मजबूत नेताओं की तरह नजर आते हैं. और फिर कहानी में आता हैं लॉर्ड माउंटबेटन का किरदार. जाते हुए अंग्रेज, अंग्रेजी के अलावा भारत को क्या-क्या देकर जाने वाले हैं, ये तय करते माउंटबेटन का भी एक स्ट्रगल है, जो इस शो में नजर आता है. उनकी पत्नी एडविना माउंटबेटन भी सारी गहमागहमी में एक नया पक्ष जोड़ती दिखती हैं.

बंटवारे में पंजाब और बंगाल के किन इलाकों को अलग करके पाकिस्तान बनाया गया? वो इलाके कैसे तय किए गए और जिन्ना की मुस्लिम लीग किन इलाकों के लिए लड़ रही थी? आजादी से पहले हुए चुनावों में बनी सरकारों और जनता का वोट लेकर आए नेताओं का आजादी और बंटवारे में क्या रोल था? भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले सेनानियों में से कौन बंटवारे के पक्ष में था, कौन खिलाफत में और उनकी वजहें क्या थीं? इन सारे सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश ‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ करता है.

कितना कामयाब है शो?

‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ शो की सबसे अच्छी बात ये है कि इसका स्क्रीनप्ले सुविधानुसार चरित्र-चित्रण की सहूलियत नहीं लेता. कहानी अपने हीरो या विलेन चुनने की जल्दी में नहीं दिखती. आज तमाम पॉलिटिकल बहसों में नेहरू के सामने खड़े कर दिए जाने वाले सरदार पटेल, शो में बंटवारे के पक्ष में तर्क देते हुए कहते हैं कि वो हाथ को बचाने के लिए उंगली काटना बेहतर समझते हैं. शो के इस एक सीन को बिना किसी सन्दर्भ के किसी के सामने रखा जाए तो शायद उसे विश्वास ना हो. लेकिन ‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ की सबसे बड़ी कामयाबी यही है कि शो, भारत के इतिहास की इन महत्वपूर्ण शख्सियतों को, उनके विचारों की समग्रता में दिखाने की कोशिश करता है.

‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ में एक ही पक्ष साफ विलेन नजर आता है- जिन्ना और मुस्लिम लीग. जिन्ना का किरदार, उनके ऐतिहासिक डिस्क्रिप्शन के हिसाब से बहुत करेक्ट नजर आता है. ये अपने ईगो के लिए करोड़ों लोगों को एक त्रासदी की तरफ धकेलने वाला किरदार है. शो में पूरी कोशिश यही है कि कहानी का केंद्र वो एक साल रहें जिनमें बंटवारे का फैसला फाइनल हुआ. पर जरूरत के हिसाब से किरदारों के मोटिवेशन और उनकी एम्बिशन को एक्सप्लेन करने के लिए पहले घट चुकी कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं फ्लैशबैक में नजर आती हैं.

जैसे- जिन्ना के ईगो वाली बात दिखाने के लिए एक फ्लैशबैक 1920 के कांग्रेस अधिवेशन का है, जिसमें गांधी के कद से चिढ़ते जिन्ना नजर आते हैं. पार्टी में गांधी के आने से अपना कद गिरता महसूस कर रहे जिन्ना यहां दिखते हैं. एक फ्लैशबैक में गांधी और नेहरू की पहली मुलाकात दिखती है. फ्लैशबैक को ये शो एक मजबूत टूल की तरह यूज करता है. एक बड़ी खासियत भाषाओं का इस्तेमाल है. शो में बिना जरूरत हिंदी में बात करते अंग्रेज नहीं हैं. ना ही गांधी-नेहरू-पटेल या दूसरे भारतीय नेता केवल शुद्ध हिंदी में बोलते दिखते हैं. शो के किरदार जरूरत के हिसाब से हिंदी-अंग्रेजी-गुजराती-पंजाबी में बात करते नजर आते हैं.

हालांकि, जिस तरह इतिहासकार और इतिहास लेखन महिला किरदारों का योगदान दर्ज करने में चूकता पाया गया है, वैसी ही कमी ‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ में भी है. सरोजिनी नायडू का किरदार केवल एक मैसेज डिलीवर करने और कमेंट्री करने के लिए ही है. जिन्ना की बहन, फातिमा जिन्ना का किरदार अपनी डेप्थ की वजह से लगता दिलचस्प है, मगर वो अपने भाई की केयरटेकर ही बनकर रह गई लगती हैं. एडविना माउंटबेटन को भी शो में एक्सप्लोर करते-करते छोड़ दिया गया है.

हालांकि, जिस तरह इतिहासकार और इतिहास लेखन महिला किरदारों का योगदान दर्ज करने में चूकता पाया गया है, वैसी ही कमी ‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ में भी है. सरोजिनी नायडू का किरदार केवल एक मैसेज डिलीवर करने और कमेंट्री करने के लिए ही है. जिन्ना की बहन, फातिमा जिन्ना का किरदार अपनी डेप्थ की वजह से लगता दिलचस्प है, मगर वो अपने भाई की केयरटेकर ही बनकर रह गई लगती हैं. एडविना माउंटबेटन को भी शो में एक्सप्लोर करते-करते छोड़ दिया गया है.

‘फ्रीडम एट मिडनाईट’ में फिल्मी स्टाइल वाली ‘कहकर बताने’ की आदत भी कहीं-कहीं बहुत साफ नजर आती है, मगर अधिकतर जगह ये नैरेटिव की पेस को हैंडल करने में काम आती है. पेस की बात करें तो शो के पहले 3 एपिसोड दर्शक से थोड़ा सा सब्र चाहते हैं. पर जब शो जैसे-जैसे अपने क्लाइमेक्स की तरफ बढ़ता है ये और बेहतर लगा जाता है.

इसे भी पढ़े :-World Diabetes Day 2024: समय रहते ही कर सकते हैं डायबिटीज से बचाव, अगर जल्द कर ली 7 लक्षणों की पहचान

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